Manipur Ki Peeda
"मेरे आंखे भरी हुई है क्रोध की अग्नि से, आंसू की बरखा और आक्रोश की धधकती ज्वाला से! मै इस चुभती खामोशी को कैसे उजागर करू? इस पाप को गंगा भी पवित्र नही कर सकती। पूछिए अपने आप से मनुष्य होने का प्रमाण। केवल सांस लेना और खुद का पेट भरना मनुष्यता का प्रमाण नही है…"
आप सोच रहे होंगे, मै यह क्या कह रहा हूं? मै कुछ नही कह रहा। यह सब कुछ वह इंसान कह रहा है जो मेरे सामने बैठा हुआ है। चलिए विस्तार से बताता हूं।
दिल्ली से चार घंटे ट्रेन विलंब से थी इसलिए सोचा की चलो वृंदावन के प्रेम मंदिर जाके आए और मथुरा में कुछ देर जमुना घाट पर बैठ आए। जमुना के बहाव से कुछ सीख ले। ब्रजधाम को थोडासा निहार के कुछ गीत लिख ले।
दोपहर को दिल्ली से कोसल एक्सप्रेस में बैठा। आखिर बहुत दिनों बाद मथुरा के मिट्टी पर उतरा। जब भी यहां आता हूं, जैसे जन्म जन्म का मेरा नाता हो वैसे ही यह शहर मुझे गले लगाता है। पैदा होते ही सबसे पहली मिट्टी मैने इसी शहर की तो खाई थी मैने! यहां के आर्मी अस्पताल से मेरा खून का रिश्ता है। ब्रजवासी होने के कारण यहां के गलियों के प्रति मेरी संवेदना, प्रेम, प्रीत, नाता बहुत गहरा है।
गोकुल की अद्भुत छटाए, जमुना का मनोहर किनारा, वृंदावन का निधिवन जैसे कृष्ण के बंसी में छुपी राधा रानी बरसाना से रोज आती हो, जमुना के तट पर सांवले मनोहारी के बाल सहलाती हो, आंचल में छुपती हो, फूलो के झूले पर कृष्ण से झूला झूलती हो, जैसे अपने हातों बनाके सुवर्ण दर्पण श्याम को ताकती हो, जैसे लेकर पानी अपनी उंगलियों के बीच उस श्वेत पुष्प को पीछे से भीगाती हो। जैसे कृष्ण अपनी तलम हातों से रायवेल, चंपा, प्राजक्ता के फूलो को राधा के नभ केश गुंफता हो। जैसे बादल गरजकर प्रेम वर्षा कर रहे हो, सागर वेणी में अपनी मंद मुस्कान लिए चलती कनुप्रिया और पीतांबर, मोर पंख में सजे मोहन।
आखिरकार मै राधा रानी और कन्हैया के अंजुलि लेने शहर पर उतरा। बहुत दिनों बाद अपने शहर को जरा करीब से देख लूं, जरा यहां की खुशबू सूंघ लू, थोडासा नाच लूं, हवा की तरह बह जाऊं, पत्तों की तरह बिखर जाऊं। बहुत सारी यादें इस शहर से जुड़ी है उन्हे फिरसे जी लूं। जिंदगी का जश्न मना लू। मेरे पैर तैयार थे, आंखे बेताब थी, बाल उड़ने को उसेन बोल्ट की तरह चेतना में थे, जिव्हा यहां की स्वादिष्ट चाट खाने को दांत से बाहर आ रही थी। मैने मां केलिए रोते हुए छोटे बच्चे की तरह जिव्हा को रोककर रखा था।
घूमना ही है तो क्यों न थोड़ा शान से घूम ले, यह सोचकर मैंने एक जगह पर अपने बैग से अपना सफेद कुर्ता निकाला और पहना। आयने में देखा, आइना मुस्कुरा रहा था।
मेरी सवारी निकल पड़ी। जैसे मेरी मधुबाला ने मुझे पुकारा हो, दुश्मन ने ललकारा हो, बड़े ही प्यार दुलार से कभी शैतान सी आंखे कर, कभी भोली चिड़िया बनकर मै प्रेम के नगरी में चलता रहा।
सबसे पहले तो इस प्रिय नगरी के चाट मैने धूमधाम से खाई। हिंग कचोड़ी, भल्ले पापड़ी, गोलगप्पे, समूसा और मेरी पसंदीदा रबड़ी। अपनी जिव्हा को पुलकित कर अब मेरी नजर वृंदावन की बगीचों पर थी। शहर में हर जगह भजन सौ लय तालो में शुरू थे। ब्रज भाषी लोगो को बीच बीच में बोलते हुए मै वृंदावन की ओर निकला। मन में गाना गुनगुनाते, राहों को पांवों तले बुनाके मै पवित्र प्रेम मंदिर के नजदीक आया।
और मुझे दूर से प्रेम मंदिर दिखाया दिया। जैसे मेहंदी वाले हाथों से चेहरा छुपाती माशूका अपना चांद जैसा चेहरा दिखाए, सुबह का सूरज सर्दी में वर्दी देकर कपास से कोहरे में छुपकर आसमान आए, वैसे ही मेरे नयनों को प्रेम मंदिर दिखाई दिया और दिखी एक लंबी भीड़ जो यह स्थल देखने आई थी। संगमरमर के पत्थरों से सजा यह प्रेम का अद्भुत धरोहर मंत्रमुग्ध कर देता है।
मैने राधा रानी और कृष्ण, राम और सीता के दर्शन किए। कुछ देर सिर्फ मंदिर को बारीकी से देखता रहा। देखता रहा लोगो की आस्था, सद्भावना और श्रद्धा को और सुनता रहा उनके दिल की पुकार। सिक्योरिटी गार्ड के पास खड़े होकर
सांवले कृष्ण को मंदिर के सामने आ बैठा। सूरज डूब रहा था। मेरी तस्वीर खींचने केलिए मैने एक लड़के को कहा और बाद में सिर्फ एक कोने मे बैठे देखता रहा: कैसे वीडियो, सेल्फी ले रहे है, कैसे परिवार के साथ मजाक मस्ती कर रहे है। रविवार का दिन था तो भीड़ बहुत ज्यादा थी। मुझे लगा यह सब लोग अपार भक्ति भाव लिए मंदिर में आए होंगे, लेकिन चहुओर लोग इस मंदिर को मन की आंखो से नही बल्कि मोबाइल के पर्दों से देख रहे थे।
ज्यादा तर औरते यहां आई हुई थी। जब में मंदिर की सीढ़ियों से नीचे उतर रहा था तब भीड़ में किसी का लाल पल्लू मेरे गालों पर झूमता हुआ लगा। उस पल्लू के स्पर्श से मुझे किसी की याद आई। ऐसी याद जो मुझे व्यथित कर गई, मन के अंतराल को अंतर्मुख कर गई। अचानक मेरे आंखो में आंसुओ का सैलाब उमड़ पड़ा। मुझे उस औरत के लाल पल्लू में दिखा था एक लिपटा हुआ मृत चरित्र, एक लिपटी हुई बेजुबान जिंदा लाश जिसकी मणिपुर के रास्तों पर दिन दहाड़े नग्न यात्रा निकली थी।
मणिपुर की दो चीखती चिल्लाती दो महिलाएं जो केवल एक पल्लू मांग रही थी अपना बदन ढंकने केलिए, अपने स्तन और योनि के लाज हेतु अपने स्त्रीत्व के वजूद को बचाने और अंदर ही अंदर चिल्ला रही थी "बचपन में इसी स्तन से तो मां का दूध पिया था तुमने, इसी योनि से तो बाहर आए थे तुम…भूल गए तुम!"
लेकिन कोई कृष्ण नही दौड़ा उनकी लाज बचाने। सभी जिंदा लाशे चुपचाप चल रही थी। ओढ़ते हुए एक अशक्त नारी को। मानवता का खून करके, जैसे टांगता है कसाई बकरी के पुर्जे को….उसी तरह वह औरते टंग गई थी इन कसाईयो के दीवार पर।
धर्म और जात से आहत होने वाला यह देश स्त्री जाति पर इतना बड़ा सदमा होने के बाद भी दो महीने तक सोया रहा। ऐसी घिनौनी घटना होने के बाद भी किसीने देश बंद करने की बात नही की। बात बात पर कोल्हापुर, महाराष्ट्र बंद करने वाली जातियों को उस महिला की पीड़ा नही दिखाई दी। उन्हे उस औरतों में अपनी मां बहन नजर नहीं आई। वह औरत कारगिल में लड़े एक सिपाही की पत्नी थी।
वह लाल पल्लू मुझसे बहुत कुछ कहके गया। मै अकेला था पूरी भीड़ में। सब लोग हस रहे थे। मै सुन्न था, जैसे सुन्न हो ग्रीष्म के बादल, जैसे देख रहा हो अर्जुन कौरवों को महाभारत के रण में। मुझे चहुओर कौरवों की भीड़ नजर आ रही थी। कही से चीख सुनाई दे रही थी "तुम कायर हो, तुम नामर्द हो, आवाज उठा नही सकते, बोल नही सकते"। वह आवाज और बढ़ती है जब मैं शाम को प्रेम मंदिर के सामने वाले बगीचे में गया। वहा रंगो के मिश्रण में बिलगते फाउंटेन के फव्वारे आसमान छूने लगे तो वृंदावन में हजारों औरते उसे ताज्जुब से देख रही थी। मैने दस मिनिट तक वह फव्वारा देखा और भीड़ से बाहर आ गया। मुझे उन पानी के फव्वारों में मेरी नग्न बहने दिखाई दे रही थी। जिसका जिक्र मीडिया ने किया तक नही था।
उन फव्वारे देख रही औरतों को मै कहना चाहता था "तुम इतना खुश कैसे रह सकती हो, देश की औरत जात इतनी बेशर्म कैसे हो सकती है। आप ही के देश की लड़कियों को नंगा कर स्त्रीजाति की अस्थियां समशान में उड़ा दी गई, उनका बाजार बना दिया गया। फिर भी यह इतना चुप कैसे हो सकती है। क्या एक स्त्री पीड़ा सुनने वाले कान इतने स्वार्थी, गूंगे हो गए की स्त्री जाति की चीख भी किसी को सुनाई न दे।
मेरी नजर दो लड़कियां जिन्हे विवस्त्र करके सड़को पर चलाया गया, उनकी कांपती हुई रूह को ढूंढने में लगी हुई थी। मै सोच के सागर में डूबा हुआ था। मै तुरंत भीड़ से हटकर मंदिर के सामने वाले हिस्से पर आया।
मणिपुर की घटना कोई साधारण घटना नही थी। मैने सोचा, द्रोपदी को भर सभा में निर्वस्त्र करने में तुले हुए कौरवों से द्रुपद की कन्या को बचाने वाले कृष्ण मणिपुर की भयंकर घटना से क्या खुश होंगे? क्या मानव समाज की नामर्दी की पर कृष्ण तालिया बजाता होगा? निश्चित ही नही।
क्या देश की आत्मा मर चुकी है? द्रोपदी के वस्त्र पर हात रखने पर महाभारत हुआ था। यहां हात नही लगाया गया, यहां गिद्धों ने द्रोपदी को पैरो तले कुचला है। फिर भी सब कुछ शांत है। यह किस तरह की निर्लज्ज राजनीति है।
पब में ठुमकती, स्ट्रीट पर बाल छोड़े दुमकती लड़कीयो को क्या कहे? सुंदर? घिन आती है ऐसी लड़कियों पर जो गलत को गलत नही कह सकती, अपना गला दबाए सिकुड़के अपने ही महिमा मंडन में बैठती है। जिस दुशासन ने नोंचे थे बाल भर सभा में, उसीके रक्त से बाल धोने पर अपने केश बांधकर अपना प्रण पूरा करनेवाली पांचाली, जंघा पर बैठने का इशारा करने वाले दुर्योधन की जंघा तोड़कर उसकी चीख सुनने वाली द्रोपदी! ऐसी द्रोपदिया आजकल पैदा नही होती।
चलते चलते योनियों पर हात डालने वाली इस पशु से बत्तर राक्षस जात को देखकर मन की आग मस्तिष्क के आर पार चली गई, जब तक जलने का धुंआ अपने घर पर नहीं आता तब तक यह आग की धधकती चिंगारी किसी को नही दिखाई देगी। शिवाजी महाराज के नाम पर नारा देने वाली जमात न जाने किस बिल में छुपी हुईं है।
मै जब कृष्ण के मंदिर में गया मुझे अपने आप की शर्म आई। मुझे लगा मै क्यों कृष्ण के सामने हात पसारु, मुझे कुछ मांगने हक ही नही है।
मंदिर के ऊपर गेरुआ ध्वज स्तब्ध रुका हुआ था। मेरे आंखे उस ध्वज पर गई। ध्वज से हल्की सी रोशनी निकली। मैने देखा वहा पर मणिपुर की पीड़ा से कृष्ण रो रहा था। उसकी आर्त पीड़ा उसके बांसुरी के दृग स्वर में छलक उठे।
वह कहने लगा "मैने क्या सिखाया था भूल गए। कर्म योग, राज योग, ज्ञान योग, भक्ति योग…भूल गए सब कुछ। मेरे लीलाओं को देखने आते हो बेशर्मों। हां मेरी भाषा शहद से कड़कती बिजली की भांति हो गई है।
अपनी बेटी रास्ते पर मर रही है, और तुम लोग राधे राधे कह रहे हो। मेरे अंदर की राधा इस पीड़ा से क्षुब्ध हो गई है। यह चीरहरण नही समस्त आर्यावर्त को लगा अभिशाप है। तुम कितना ही क्यों न पीट लो डंका विश्वगुरु बनने का, तुम बनालो दस ट्रिलियन की इकोनॉमी पर उन स्त्रियों का वस्त्रहरण यह देश पर लगा लांछन है।
अपनी मधुर हंसी की जगह आक्रोश के ज्वाला में कृष्ण कहने लगा, "मेरे द्वार पर आने वाले तुम किस कृष्ण को देखना चाहते हो? बांसुरी बजाते, माखन चुराते, राधा का पल्लू पकड़ते, या फिर किसी स्त्री लज्जा रक्षण हेतु महाभारत कराते, न्याय दिलाते। तुम मुझे आज तक जान नही पाए। मैने द्वारिका से मणिपुर तक…पश्चिम से पूर्व तक इस देश को एकसंध बांधा था। भक्ति क्या है? मैने अंधी भक्ति कब सिखाई! भक्ति याने करुणा, प्रेम, मानवता का उपदेश था। मानवता याने सत्य को जानना, धर्म के पथ पर चलना। धर्म क्या है…धर्म एक कर्तव्य है। मनुष्य का धर्म है की वह अन्याय के खिलाफ खड़े हो। जिस द्वार से उत्पन्न होती है अनेको महान पीढ़ियां उस योनियों को अपवित्र करना यह मनुष्य जाति पर लगा कलंक है।
मेरे आंखे भरी हुई है क्रोध की अग्नि से, आंसू की बरखा और आक्रोश की धधकती ज्वाला से! मै इस चुभती खामोशी को कैसे उजागर करू? कैसे चिखू इन हजारों जिंदा मुर्दोंमें, मै चीखना चाहता हूं, जोर जोर से। इससे बेहतर तो धृतराष्ट्र था जो सचमुच अंधा था। लेकिन यहां सब गहरी नींद में है…हां सब लोग जागते हुए भी अंधे है। इस पाप को गंगा भी पवित्र नही कर सकती। पूछिए अपने आप से मनुष्य होने का प्रमाण। केवल सांस लेना और खुद का स्वार्थ साधना मनुष्यता का प्रमाण नही है, यह तो पशु भी करते है। सच केलिए आवाज उठाना ही तो मनुष्यता का धर्म है। मै ये सब क्यों कह रहा हूं…सुन लो, जान लो।" और अचानक ध्वज से निकली रोशनी बंद हो गई और कृष्ण विलुप्त हो गया। मै इधर उधर देखने लगा। कृष्ण कही नही था। व्याध के बाण से जितनी पीड़ा उसे नही हुई थी उतनी उसे मनुष्यता की नपुंसकता पर हो रही थी।
मै अपनी बैग लिए वहा से उठा। रात के साढ़े आठ बज चुके थे। मै चुपचाप मंदिर से बाहर आया हजारों की भीड़ में से! बस पकड़कर एक चौक में उतरा, फिर एक ऑटो पकड़ा। सीधा मथुरा के स्टेशन पर आ पहुंचा और गोवा एक्सप्रेस इंतजार करता रहा।
रेल्वे स्टेशन पर टीवी9 भारत वर्ष की खबरे शुरू थी की सीमा हैदर ने रची साजिश, क्या आज रात डूबेगी दिल्ली। मै मणिपुर की खबरे बिके हुए अखबारों में खोजता रहा। मुझे मेरी बहनों का दर्द किसीने नही दिखाया। आजकल मंत्री बिक रहे है, मिडिया बिका है, लोग रील्स पर बिके है, भोले भाले लोग भगवान भरोसे है, इंसाफ केलिए आवाज उठाएगा कौन? यह अंधा लोकतंत्र शुरू है। पीड़ित लोग अश्वथामा बने इधर उधर भटक रहे है। ये….चल देखो विंडीज सीरीज, देखो सीमा हैदर को, अत्याचार क्या होते ही रहेंगे…उसका क्या!
सोचो नहाते वक्त किसीने हमे देख लिया तो दरवाजा पटकने वाली हमारे कौमें इक्कीस साल की उस मासूम लड़की का दर्द कैसे समझ सकती है। न जाने इस हादसे से उभरने में उनके कितने साल जाएंगे। बस राजनीतोकारो और बेशर्म लोगो को इतना ही कहना है, शर्म करो।
मेरी कलम अभी लज्जित हो रही है। मै और आगे नही लिख सकता। विराम।
Harish.
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