रीना रॉय: सितारों से भरे आकाश में खिली हुई तारका।


रीना रॉय: सितारों से भरे आकाश में खिली हुई तारका।

सत्तर का वह दशक था जहा हिंदी सिनेमा ड्रीम गर्ल हेमा मालिनी, मर्लिन मुनरो जैसी परवीन बाबी, रूपवती जीनत और लाजवाब रेखा जैसी तारकांवो से सजा हुआ था। नई अभिनेत्रीयों को सिनेमा की ताजपोशी हासिल करना कठिन बात थी। फिर भी एक तारका ने अपनी मेहनत से अनेक सितारों के बीच खुद का वर्चस्व स्थापित किया, सिनेमा के तारापथ में अपनी अलग जगह बनाई। गुजरे जमाने की उस मशहूर अभिनेत्री का नाम है रीना रॉय।  

रीना रॉय का जन्म 7 जनवरी 1957 को हुआ। उनके पिता का नाम सादिक अली और माता का नाम शारदा राय था। उनकी चार संतान है, उनमें रीना तीसरी संतान हैं। रीना के बचपन में ही मां बाप का तलाक हो गया और वह मां और भाई बहनों के साथ मुंबई में रहने लगी। 

फिल्मों में काम करने केलिए उन्होंने अपनी पढ़ाई छोड़ दी और किशोरावस्था में ही फिल्मों में काम करना शुरू कर दिया। 

रीना के करियर की शुरुवात निर्देशक बी आर इशारा की फिल्म जरूरत (1972) से हुई। यह नवागंतुक अभिनेता विजय अरोरा और डैनी डेन्जोंगपा की पहली फिल्म थी। यह फिल्म काफी सफल रही। उन्ही की निर्देशन में बनी फिल्म 'नयी दुनिया नये लोग' (1973) में भी उन्होंने काम किया था। लेकिन इस फिल्म को अस्थायी रूप से बंद कर दिया गया था।

जितेंद्र के साथ आई 'जैसे को तैसा' (1973) में रीना ने सौंदर्य का अद्भुत दीपक राग गाकर पानी में भी आग लगाई। वह दीपक राग उनकी खूबसूरत अदाकारी का था। "अब के बरस सावन में जी डरे" इस गाने पर बारिश में भीगे हुए पीले पल्लू में वह गुलबहार के फूल तरह नजर आती है। डूबते सूरज जैसी लाल बिंदी, नाक में नथ, कानों में झुमके, खुली जुल्फों के साथ बारिश में भीगे बदन और ठंड में वह उत्सागनि निर्माण करती है। 

रीना रॉय को असली पहचान सुभाष घई की फिल्म 'कालीचरण' (1975) से मिली। बतौर निर्देशक यह सुभाष घई की पहली फिल्म थी। इस फिल्म से किसीको ज्यादा उम्मीदें नही थी। अभिनेता शत्रुघ्न सिन्हा अपने खलनायकी भूमिकाओं को छोड़कर पहली बार नायक की भूमिका में थे। लेकिन इस फिल्म ने सफलता के नए पैमाने छू लिए। शत्रुघ्न की प्रेमिका के रूप में रीना ने दर्शकों का ध्यान आकर्षित किया और वह हिंदी सिनेमा का मुख्य चेहरा बन गई। 

रीना रॉय और शत्रुघ्न सिन्हा को एक साथ लाने में फिल्म 'कालीचरण' का बड़ा हाथ था। दर्शकों ने दोनों की जोड़ी बहुत पसंद की। दोनों ने मिलकर करीब नौ सफल फिल्में दीं। सिन्हा और रीना ने 'विश्वनाथ', 'नसीब', 'जानी दुश्मन', जैसी फिल्मों में काम किया। उस समय दर्शक परदे पर उनके रोमांचक केमिस्ट्री के दीवाने थे।  

रीना की जोड़ी अभिनेता जितेंद्र के साथ भी खूब जमी। उन्होंने साथ में 17 फिल्मे की उनमें से 12 फिल्मे कामयाब रही। आशा (1980), 'अपनापन' (1977), अर्पण (1983), जैसी महानतम क्लासिक फिल्में शामिल है। 

रीना ने अपने अद्वितीय आकर्षण और जबरदस्त अभिनय प्रतिभा से 'नागिन', 'आशा', 'विश्वनाथ', 'अपनापन', 'प्यासा सावन', 'मदहोश, 'गूंज' , 'वरदान', 'जख्मी', 'संग्राम', गुलामी में अपनी छाप छोड़ी। उनकी 'रानी और लालपरी', 'जंगल में मंगल', 'उमर कैद', में काम किया लेकिन यह फिल्में ज्यादा प्रभाव दिखा नही पाई।

निर्देशक राजकुमार कोहली के साथ उन्होंने बेहद बामुराद रही 'नागिन', 'मुकाबला', 'जानी दुश्मन', 'राज तिलक' इन फिल्मों में काम किया।

रीना की अभिनय यात्रा किरदारों के विविधताओं से भरी हुई है। 'सौ दिन सास' में उनके बहु की भूमिका जो अपनी सास की तरफ से होने वाली अत्याचार, अनीति का मुंह तोड़ जबाव देती है। अत्याचारी सास का विरोध करने के लिए परंपराओं का उल्लंघन करती है। अपरंपरागत बहु की उग्र छवि को उन्होंने शानदार तरीके से पर्दे पर दर्शाया है।

एक दुर्भाग्यशाली 'तवायफ' की भूमिका निभाते हुए, वह अपनी कभी न खत्म होने वाली त्रासदियों पर नृत्य करती है। 

'विश्वनाथ' फिल्म में उन्होंने एक नर्तकी की भूमिका निभाई। अपनी मासूमियत और जिंदगी की बेबसी को उन्होंने अभिनय की विभिन्न छटावो से साकार किया।

घातक 'नागिन' की शीर्षक भूमिका निभाते हुए, वह पांच प्रमुख पुरुष-सितारों की बेरहमी से हत्या करके अपने प्रेमी की मौत का बदला लेती है। 

'आशा' में "शीशा हो या दिल" की धुन पर रीना के मार्मिक नृत्य ने उन्हें इच्छा और त्रासदी के प्रतीक के रूप में अमर बना दिया। 

'अपनापन' में उन्होंने पैसों के पीछे भागने वाली और स्वार्थी औरत की अंधकारमय भूमिका निभाई जो अपने पति और बच्चे को छोड़ देती है। एक बेरहम मां और एक कठोर पत्नी का किरदार उन्होंने इस तरह निभाया की दर्शक भी उनसे घृणा करने लगते है। अभिनय यात्रा के पथ में शायद ऐसे इनाम केलिए हर कलाकार इंतजार करता है। 

रीना ने 1980 के दशक में एक अग्रणी अभिनेत्री के रूप में प्रवेश किया। रीना ने उनके चहेते अभिनेता राजेश खन्ना के साथ 'धरम कांटा', 'आशा ज्योति', 'धनवान' जैसी चार फिल्मों में महत्वपूर्ण भूमिकाएँ निभाईं, जो कामयाब रहीं। धनवान (1981) में उन्होंने उद्दंड विधवा महिला का किरदार निभाया जो अहंकारी राजेश खन्ना को सुधारती है। 

बेहद लोकप्रिय 'अर्पण' में भारतीय नारीत्व के बलिदानी प्रतीक के रूप में उनकी छवि को महिमामंडित किया गया। 'नौकर बीवी का' (1983) में धर्मेंद्र के लिए अपना आखिरी 'मुजरा' करते हुए वह मंच पर मर जाती है। लेडीज़ टेलर (1981) में संजीव कुमार के साथ उन्होंने दोहरी भूमिका निभाई।

समय के साथ उनके किरदार अधिक बहुमुखी होते गए, उनमें अभिनय के चमक के साथ नृत्य में सहजता थी। उनके हथकड़ी फिल्म का "डिस्को स्टेशन सॉन्ग" काफी लोकप्रिय हुआ था। जिससे प्रकाश मेहरा, राज खोसला और सुल्तान अहमद जैसे शीर्ष निर्देशकों ने उन्हें महत्वपूर्ण भूमिकाओं के लिए चुना। 

1980 के दशक की शुरुआत तक वह हेमा मालिनी को अव्वल स्थान के लिए कड़ी प्रतिस्पर्धा दे रही थीं। रीना ने अपने काम पर ध्यान केंद्रित किया। रीना हेमा और जीनत अमान की जगह सबसे अधिक भुगतान पाने वाली अभिनेत्री बन गईं। 1981-85 तक सबसे अधिक भुगतान पाने वाली अभिनेत्री और 1976-81 तक दूसरी सबसे अधिक भुगतान पाने वाली हिंदी अभिनेत्री थीं। 

1982 में, उनकी तेरह फिल्मे रिलीज हुईं थी, जो उनके किसी भी प्रतिद्वंद्वी से कहीं अधिक थीं। अपनी लोकप्रियता के शिखर पर रीना ने खुद को साबित करने की सुप्त इच्छा से कई महिला-प्रधान फिल्मों में काम किया। एक नायिका के रूप में रीना की आखिरी यादें हम दोनों (1985) और गुलामी (1985) में संघर्षरत मोरॅन के रूप में है। 


फिल्म 'नागिन' और 'आशा' केलिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री की श्रेणी में फिल्मफेयर का नामांकन मिला। था। फिल्म 'अपनापन' केलिए उन्होंने नूतन और आशा पारेख को पछाड़कर सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेत्री का फिल्मफेयर पुरस्कार जीता। परंतु इसे लेने से उन्होंने इंकार किया। रीना ने इस आधार पर पुरस्कार ठुकरा दिया कि वह फिल्म की नायिका हैं, सहायक अभिनेत्री नहीं! 

भारतीय सिनेमा में उनके उत्कृष्ट योगदान के लिए, रीना रॉय को 1998 में प्रतिष्ठित फिल्मफेयर लाइफटाइम अचीवमेंट अवॉर्ड से सम्मानित किया गया था।

दो दशक तक सिनेमा के क्षितिज पर गरुड़ की भांति ऊंचाईया छुनेवाली रीना ने सुनील दत्त, कमल हसन, राजेश खन्ना, जितेंद्र, धर्मेंद्र, शत्रुघ्न सिन्हा जैसे दिग्गजो के साथ काम किया। लेकिन उनकी जोड़ी दिग्गज अभिनेता जितेंद्र और शत्रुघ्न सिन्हा के साथ खूब पसंद की गई। 

रीना ने 1983 में पाकिस्तानी क्रिकेटर मोहसिन खान से शादी की और करीब नौ साल तक फिल्मों से दूर हो गई। मोहसिन के साथ तलाक के बाद 1992 में वह भारत लौट आईं, उन्होंने जीतेंद्र के साथ 'आदमी खिलोना है' से हिंदी फिल्मों में वापसी की। सनी देओल अभिनीत 'अजय' (1996), अजय देवगन की 'गैर' (1999), और 'रिफ्यूजी' (2000) में भी अभिनय किया। 'रिफ्यूजी' अभिषेक बच्चन और करीना कपूर खान की पहली फिल्म थी। 

कुछ समय तक रीना छोटे पर्दे का भी हिस्सा रही। उन्होंने टेलीविजन धारावाहिक 'ईना मीना डीका' में अभिनय किया। रीना की बहन बरखा रॉय इस धारावाहिक की निर्माता भी थीं। साल 2004 में दोनों बहनों ने मिलकर एक एक्टिंग स्कूल की शुरुआत की। रीना का असली नाम रूपा है। उनकी पहली फिल्म के निर्माता ने उनका नाम रूपा से रीना कर दिया था।  

रीना बचपन में बहुत संवेदनशील थी। वह राजेश खन्ना के अभिनय के मुरीद थी। बांद्रा में स्कूल छूटने के बाद वह अपने पसंदीदा अभिनेता राजेश खन्ना की एक झलक पाने केलिए वह बांद्रा के उनके घर के सामने घंटो इंतजार करती थी। वह कहती है की आठ साल के निरंतर कड़ी मेहनत के बाद उन्हें राजेश खन्ना के साथ काम करने का मौका मिला। काम के प्रति समर्पित, ईमानदारी और समय के प्रति पाबंद रहना इन्ही गुणों से मुझे हिंदी सिनेमा में सफलता मिली है।"

हृदयग्राही आंखे, विमोहक हास्य, कमनीय नृत्य, इन आभूषणों से सजी संवरी सुरम्यताने "परदेस जाके परदेसिया भूल न जाना पिया" कहकर विरह की विवशता को प्रकट किया, जा रे जा ओ हरजाई कहकर प्रेम में अपनी गलती का एहसास होनेवाली प्रेमिका का और "शीशा हो या दिल हो आखिर टूट जाता है" कहकर अनेक दिलों के दर्दों को नृत्य सज्जा से बयान करने वाली इस मंजुल अभिनेत्री का हिंदी सिनेमा के मध्य पटल में उच्च कोटि का योगदान रहा। रीना के अभिनय के दिव्य अध्याय को सिनेमा के यादगार पन्नो और रसिकों के हृदयों में हमेशा गौरवान्वित किया जायेगा।  






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