नंदा: शोहरत पर खड़ी अकेलेपन की दास्तान
नंदा: शोहरत पर खड़ी अकेलेपन की दास्तान
साठ के दशक की ऐसी तारका जो अपने सशक्त अभिनय और हावभाव से अनेक रूप और गुणवतियो को मात देती थी। विधाता ने इन्हे सुंदर आंखे, मधुरवाणी, फूलो की भांति आकर्षकता और शर्मीले स्वभाव से सजाकर भेजा था। सौंदर्य की ज्वलंत दीपशिखा को देखकर कोई भी युवक लजा जाए ऐसी इनकी काया थी। हिंदी सिनेमा के मध्य पटल में कई सितारों के मेले में जिन्होंने अपनी असीम छाप छोड़ी उस अभिनयज्योत्सना का नाम है अभिनेत्री नंदा।
नंदा का जन्म 8 जनवरी 1939 को एक मराठी परिवार में, कोल्हापुर में हुआ। उनकी मां का नाम सुशीला और पिता का नाम विनायक दामोदर कर्नाटकी था। उन्हे लोग मास्टर विनायक भी कहते थे। वह मशहूर अभिनेता, निर्देशक, फिल्म निर्माता थे जिन्होंने प्रफुल्ल चित्र कंपनी की स्थापना की थी।
नंदा महान स्वातंत्र्य सेनानी सुभाषचंद्र बोस के विचारो से काफी प्रभावित थी। बचपन में उनका सपना था की वह आजाद हिंद फौज में शामिल होकर देश की सेवा करे। उन्होंने अपनी शिक्षा घर से ही पूरी की। बचपन में प्रसिद्ध स्कूल-शिक्षक और स्काउट्स कमिश्नर गोकुळदास माखी उन्हे घरपर पढ़ाने आते थे।
नंदा अपने सात भाई बहनों में माता पिता की सबसे चहेती थी। वह जब पांच साल की थी तब उन्हें अपने बाल काटने पड़े थे। क्योंकि पिता की इच्छा अनुसार उन्हें 'मंदिर' फिल्म केलिए लड़के की भूमिका निभानी थी। शुरुवात में काम करने से उन्होंने मना कर दिया लेकिन मां के समझाते ही वह राजी हो गई।
इसी फिल्म की शूटिंग के दौरान उनके पिता का महज 41 साल की उम्र में दुर्भाग्यवश देहांत हो गया। बाद में यह फिल्म निर्देशक दिनकर पाटिल ने पूरी की। 'मंदिर' से नंदा को असीम पहचान मिली और उन्हे बेबी नंदा के नामसे पुकारा जाने लगा।
पिता के अचानक गुजरने के बाद घर की हालत बिगड़ने लगी। एक समय घर की हालत इतनी गंभीर हो गई की उन्हे अपना बंगला और कार भी बेचनी पड़ी। कम उम्र में घर की जिम्मेदारी आ गई, इसलिए उन्होंने 1948 से 1956 तक बाल कलाकार के रूप में काम जारी रखा। इसमें 'मंदीर', 'जग्गु', 'अंगारे' और 'जागृती' जैसे फिल्मों में काम किया।
नंदा सुप्रसिद्ध निर्देशक वी. शांताराम की भतीजी थी।
एक बार वी. शांताराम ने किसी शादी में उन्हें साड़ी पहनके आने को कहा था। नंदा को साड़ी में देख शांताराम को लगा की यह अब बाल भूमिकाओं से बहन की भूमिकाएँ निभाने के लिए तैयार है और उन्होंने नंदा को 'तूफान और दिया' में बहन की भूमिका दी।
इस फ़िल्म के बाद उन्हें बहन की एक जैसी भूमिकाएँ मिलने लगी। फिल्म 'भाभी' (1957) केलिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेत्री के रूप में अपना पहला फ़िल्मफ़ेयर नामांकन मिला। नंदा ने 'छोटी बहन' (1959) में मुख्य भूमिका निभाई। उनका "भैया मेरे राखी के बंधन को निभाना" यह गाना आज भी याद किया जाता है।
इस फिल्म की सफलता के बाद उन्हें एक प्रतिभाशाली अभिनेत्री के रूप में जाना जाने लगा। उन्होंने 'कालाबाजार' में देवानंद की बहन की भूमिका निभाई और अपने अभिनय कौशल से देवानंद और नायिका वहीदा रहमान को प्रभावित किया। 'कालाबजार' के दौरान देवानंद ने नंदा से वादा किया की वह अपनी अगली फिल्म 'हम दोनों' (1961) में उन्हे नायिका बनाने के लिए जरूर गौर करेंगे और बाद में यह वादा उन्होंने बखूबी निभाया।
नंदा को बतौर मुख्य अभिनेत्री के रूप में पहला बड़ा रोल फिल्म 'धुल के फूल' में मिला। जिसमे उन्होंने मुख्य अभिनेता राजेंद्र कुमार के साथ काम किया।
रंगीन पर्दे पर उनकी जोड़ी अभिनेता शशि कपूर के साथ खूब जमी। दोनो ने एक साथ कुल आठ फिल्में की जिनमे से 7 फिल्मों ने सफ़लता की ऊंचाइयां छू ली। इनमें 'चार दिवारी', 'जुआरी', 'नींद हमारी सपने तुम्हारे', 'मेहंदी लगी मेरे हात' जैसी फिल्में शामिल है। नंदा को बड़े दिलवाली, उदार और दयालु अभिनेत्री माना जाता था। नंदा ने फिल्म 'चार दीवारी' (1961) के वक्त शशी कपूर के साथ काम करने केलिए तब हां कहा था जब शशि कपूर फिल्मों में नए थे और नंदा खुद चमकती सितारा थी। हालांकि यह फिल्म असफल होने के बावजूद भी उन्होंने शशि कपूर के साथ 7 और फिल्में साइन कीं, जिसके लिए शशि कपूर उनके हमेशा आभारी रहे।
उनकी सबसे बड़ी यादगार फिल्म 'जब जब फूल खिले' (1965) थी, जिसमें उन्होंने एक आकर्षक, पश्चिमी महिला की भूमिका निभाई थी। इस फिल्म ने उनके अभिनय दर्पण को एक शोकांतिक मुद्रा से आधुनिक खिलखिलाते ढांचे में बदल दिया। कश्मीरी वेशभूषा में सजी और नाव में बैठी नंदा जब "परदेसियों से ना अंखियां मिलाना" गाना गाती है तब देश की संस्कृति, सभ्यता और मर्यादा का एहसास दिलाती है।
मर्डर मिस्ट्री फिल्म 'गुमनाम' (1965) के बाद वह नायिकाओं की ताजपोशी पर जा पहुंची।
नंदा अपनी भोली भोली किरदारोवाली प्रतिमा से बाहर आकर कुछ अलग भूमिकाएं करना चाहती थी। 1970 में उन्हे फिल्म 'इत्तेफाक' केलिए उन्हें नकारात्मक भूमिका का प्रस्ताव दिया गया। इस भूमिका को निभाने के डर से कई अभिनेत्रियों ने नकार दिया था। लेकिन नंदा ने परंपरागत सांचे से हटकर, इसे एक चुनौती की तरह स्वीकार किया और कठिन किरदार को अपने सशक्त अभिनय से सुवर्ण अवसर में बदल दिया। राजेश खन्ना के साथ की गई यह फिल्म बामुराद रही। इस फिल्म केलिए उन्हें फिल्मफेयर नामांकन प्राप्त हुआ।
1970 के दशक में 'द ट्रेन' और 'द शोर' (1972) से उनका जादू दर्शकों पर छाया रहा। अभिनय के आखरी पडाव पर उन्होंने 'जोरू का गुलाम' जैसी फिल्म की। 'नया नशा' (1974) में उन्होंने ड्रग एडिक्ट की भूमिका निभाई, यह एक साहसी किरदार था जिसे निभाने से अन्य अभिनेत्रियाँ डरती थीं। इस फिल्म के साथ उन्होंने एक नायिका के रूप में अपनी कारकीर्द खत्म की।
1974 के बाद उन्होंने फिल्मों में काम करना बंद किया। लेकिन साल 1982 में वह फिर से रंगीन पर्दे पर वापिस आई। 'आहिस्ता आहिस्ता', 'प्रेमरोग' और 'मजदूर' फिल्म में उन्होंने चरित्र भूमिकाएं निभाई। प्रेमरोग में पद्मिनी कोल्हापुरी की मां का किरदार दर्शकों में काफी पसंद किया गया। लेकिन यही पर उन्होंने अभिनय की यादगार सफर पर पूर्ण विराम लगाते हुए संन्यास ले लिया।
अपने अभिनय कारकीर्दगी में उन्होंने 70 से अधिक फिल्मों में काम किया। उन्हे फिल्म 'भाभी', 'आहिस्ता आहिस्ता' और 'प्रेमरोग' केलिए सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेत्री और 'इत्तेफाक' केलिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का नामांकन प्राप्त हुआ।
वहीदा रहमान के साथ उनके घनिष्ट स्नेह संबंध थे। जीवन के कई उतार चढ़ाव में वहीदा उनके साथ रही। बहुत शर्मीली और अंतर्मुखी नंदा अपने परिवार और दोस्तों के करीब रहकर अपने तक ही सीमित रहीं।
वह लगभग अपनी मृत्यु के दिन तक अपनी सहेलियों, वहीदा रहमान, आशा पारेख, सायरा बानो, साधना शिवदासानी, शम्मी, हेलेन के संपर्क में रहीं।
नंदा 1960-1965 तक नूतन के साथ दूसरी सबसे अधिक शुल्क लेने वाली हिंदी अभिनेत्री थी तथा 1966-1969 में नूतन और वहीदा के साथ दूसरी सबसे अधिक शुल्क लेने वाली हिंदी अभिनेत्री थी।
'द ट्रेन' फिल्म में 'किस लिए मैने प्यार किया' कहनेवाली इस मृगनयनी का जीवन अकेलेपन की अनोखी दास्तान है। उन्होंने कभी भी शादी नही की। 1992 में प्रसिद्ध निर्देशक मनमोहन देसाई के साथ उनकी सगाई हो गई थी लेकिन शादी के पूर्व मनमोहन देसाई की उनके घर के छत से गिरने से मौत हो गई। एक साल बाद ही उनकी मां कर्करोग से चल बसी। वह कहती थी की बचपन में ही पिता का साया उठ गया, शादी नही की इसीलिए बच्चो के प्रेम का साया प्राप्त नहीं हुआ। "कही किसीको मुक्कमल जहा नही मिलता, कही जमी तो कही आसमा नही मिलता" फिल्म आहिस्ता आहिस्ता की उनका यह गीत जैसे उनकी जिंदगी बयां करता है।
एक दिन नंदा मुंबई के घर में, किचन में नाश्ता बनाते वक्त वह नीचे गिरी और ऐसे गिरी की फिर कभी उठी ही नही।
25 मार्च 2014 को हजारों दिलो में बसने वाली इस महान अभिनेत्री का निधन दिल का दौरा पड़ने से हुआ।
समंदर में लहरों के साथ भागती, फिरती, नाचती नंदा जब नीली रेशमी साड़ी में ये "समा समा है प्यार का" यह गाती है तो लगता है उनके लावण्य में पूरा आसमान समा गया हो। यह बहुमुखी प्रतिभा, लंबे कारकीर्द की धनी और अपने अनुपम अभिनय सौंदर्य से हिंदी सिनेमा के परदे को खूबसूरत बनाने वाली नंदा का नाम सिनेमा जगत की किताब और दर्शकों के दिल में सदा केलिए सुवर्ण अक्षरों में अंकित रहेगा।
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